शनिवार, 24 जनवरी 2015

अर्ज़ किया है- 6



निदा फाज़ली- 
पत्थरों की भी जबां होती है दिल होते हैं 
अपने घर के दरो दीवार सजा कर देखो.

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शांति सबा- 
आज के दौर में उम्मीदें वफ़ा किससे रखें 
धूप में बैठा है खुद पेड़ लगाने वाला.

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फारिग सीमाबी- 
सफीना जब तेरे होते हुए भी डूब सकता है 
उठाये फिरे तेरे एहसान क्यों ए नाख़ुदा कोई.

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साकी मछलीशहरी- 
ढूंढिए तो दूर तक मिलता नहीं इन्सां कोई
देखिए तो बढ़ रही हैं बस्तियाँ चारों तरफ.

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आजाद गुरदासपुरी- 
उजड़ी बस्ती में रौशनी कैसी- 
जल रहा है किसी का घर शायद.

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अरफान परभनवी- 
लोग अन्धेरे को समझ बैठे मुकद्दर अपना 
इनके ज़हनों को बदल और उजाला फैला.

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तरब मेरठी- 
झुलसें न चलने वाले तरब तेज धूप में 
कुछ पेड़ सायादार लगाते हुए चलो.

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शेबा जाफ़री- 
बस इस सोच में बैठी हूँ के माहबूब मेरा 
अश्क़ की तरह ना आँखों से गिरा दे मुझको.

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